Rajasthan caste discrimination: हाल ही में राजस्थान (Rajasthan) के आलवाडा गांव (Aalvada Village) से एक खबर सामने आई है. जहाँ आज़ादी के 78 साल बाद दलित समुदाय (Dalit Community) को अब नाई से बाल कटवाने की आज़ादी मिल गई है. 24 वर्षीय कीर्ति चौहान ने 7 अगस्त को यह ऐतिहासिक कदम उठाया, जिसे दलित समुदाय ने “छोटी कटिंग, बड़ा बदलाव” करार दिया. तो चलिए आपको इस लेख में पूरे मामले के बारें में विस्तार से बताते हैं.
और पढ़े: क्या कहती है BNS की धारा 187, जानें इससे जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बातें
दशकों से हो रहा भेदभाव
कहते हैं मेरा देश आज़ाद हो गया है लेकिन दलितों की हालत आज भी वैसी ही है जैसी सदियों से थी. दलितों को आज भी उच्च वर्ग के बराबर अधिकार नहीं मिले हैं. उन्हें आज भी समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ता है. आए दिन दलितों के साथ भेदभाव की कोई न कोई खबर सामने आती रहती है. कभी उन्हें साथ बैठने नहीं दिया जाता, कभी साथ खाना नहीं खाने दिया जाता, कभी दाढ़ी-मूंछ रखने की इजाज़त नहीं होती और कई गाँवों में तो दलितों के बाल काटने के लिए नाई भी नहीं होते. ऐसा ही एक मामला राजस्थान के आलवाडा गांव से सामने आई जहाँ पिछले कई सालो से दलितों को नाई के पास बाल कटवाने की आज़ादी नहीं थी. लेकिन अब ये भेदभाव की बेड़िया टूट गयी है.
दरसल बीते 7 अगस्त को आलवाडा गांव में एक ऐतिहासिक घटना घटी जिसने सामाजिक समानता को एक नई दिशा दिखाई. दरअसल, इसी दिन 24 वर्षीय खेतिहर मज़दूर कीर्ति चौहान ने गाँव की नाई की दुकान पर बैठकर अपने बाल कटवाए. यह पहली बार था जब गाँव के किसी दलित को नाई की दुकान पर यह सुविधा मिली. गाँव के दलितों ने इसे आज़ादी का एहसास बताया. मीडिया रिपोर्ट्स से मिली जानकारी के अनुसार आलवाडा गांव में करीब 250 लोग दलित समुदाय के है. जिन्हें सदियों से गांव के नाई दलितों के बाल काटने से मना करते थे. इस वजह से दलितों को नाई की दुकान तक पहुंचने के लिए दूसरे गांव जाना पड़ता था. इस कारण उन्हें कई बार अपनी जाति भी छुपानी पड़ती थी, ताकि नाई उनके बाल कटवा दे.
कई प्रयासों के बाद हुआ बदलवा
गांव के दलित समुदाय के लोगों ने बताया कि हमारे दादा-दादी ने भी इस भेदभाव का सामना किया है. गांव में रहने वाले 58 वर्षीय छोगाजी चौहान कहते हैं, “मेरे बच्चों ने भी आठ दशकों तक यही दर्द झेला. लेकिन जब कीर्ति चौहान ने गांव की दुकान पर बाल कटवाए तो वह काफी भावुक हो गए. उन्होंने कहा, “24 साल में पहली बार मैं अपने गांव में नाई की दुकान पर बैठा.
इससे पहले हमें हमेशा गाँव के बाहर जाना पड़ता था. उस दिन मुझे लगा कि मैं आजाद हूं और मुझे अपने ही गांव में स्वीकार कर लिया गया है.” बता दें, दलित समुदाय ने इस भेदभाव को खत्म करने के लिए लंबे समय तक लड़ाई लड़ी है. इस लड़ाई में कई समाजसेवी ने भी दलित समुदाय की मदद की और कई बार उन्होंने गाँव के उच्च जाति के लोगों को समझाने की कोशिश की है.
और पढ़े: संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए लामबंद हुए दलित, दलित संघला ऐक्य वेदिका ने की सरकार से मांग
पुलिस और जिला प्रशासन को हस्तक्षेप
लेकिन जब मामला नहीं सुलझ पाया, तो पुलिस और जिला प्रशासन को हस्तक्षेप करना पड़ा ताकि नए बदलाव हो सके ममलतदार जनक मेहता ने गांव के नेताओं और सभी वर्गों से बातचीत की और समस्या का समाधान कराया. वही गांव के सरपंच सुरेश चौधरी ने भी कहा की एक “सरपंच होने के नाते मुझे पहले की प्रथा पर शर्म आती थी. खुशी है कि यह गलत रिवाज मेरे कार्यकाल में खत्म हुआ. साथ ही दलितों के पहली बार बाल काटने वाले नाई ने कहाँ की आज दलितों के गाँव में 5 नाई की दुकान खुल गयी हैं और इस से हमारे लिए लाभ होगा.