Karnataka news: हाल ही में कर्नाटक के कोप्पल जिले के मुड्डाबल्ली गांव से चौकाने वाली खबर सामने आई है जहाँ गाँव में दलितों के बाल काटने से इनकार करने और नाई की दुकानों को बंद करवा दिया गया है वही ये घटना एक गंभीर उदाहरण है कि कैसे जातिगत भेदभाव आज भी व्याप्त है। तो चलिए आपजो इस लेख में पूरे मामले के बारे में बताते है।
जानें क्या है पूरा मामला?
कर्नाटक में दलितों के साथ भेदभाव की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। इनमें उन्हें मंदिरों में प्रवेश न करने देना, सार्वजनिक स्थानों पर अपमानित करना और सामाजिक बहिष्कार शामिल हैं। हाल ही में एक नई घटना ने इस समस्या की गंभीरता को उजागर किया है, जो कर्नाटक के कोप्पल जिले के मुद्दाबली गांव से जुड़ी है। यहां ऊंची जातियों द्वारा छुआछूत कायम रखने की कोशिश देखी गई है। गौरतलब है कि गांव में बाल काटने की दुकानें बंद कर दी गई हैं ताकि कोई दलित वहां न जा सके। ये दुकानें पिछले दो महीने से बंद हैं, जिसके कारण दलितों को अब बाल कटवाने के लिए कोप्पल शहर जाना पड़ता है। यह घटना मुद्दाबली गांव में व्याप्त भेदभाव और सामाजिक असमानता का स्पष्ट प्रमाण है।
दरअसल, कोप्पल जिले के कुछ गांवों में ऊंची जातियों और दलितों के बीच खाई है। दलितों को आने से रोकने के लिए बाल काटने की दुकानें बंद करना वास्तव में एक सभ्य समाज के लिए अपमानजनक कार्य है। वहीं, कोप्पल जिले के कवलकेरा गांव में अंबेडकर की तस्वीर को चप्पल की माला पहनाकर उसका अपमान किया गया है। अंबेडकर की तस्वीर पर चप्पल फेंकी गई कुछ बदमाशों ने अंबेडकर की तस्वीर को चप्पल की माला पहनाकर उसका अपमान किया। दो दिन पहले भागीरथ सर्किल मामले को लेकर गांव में बवाल हुआ था। इसी झगड़े के चलते कुछ बदमाशों ने अंबेडकर की तस्वीर पर चप्पल फेंकी थी। बाबा साहेब अंबेडकर की तस्वीर के अपमान से स्वाभाविक रूप से ग्रामीणों में गुस्सा भड़क गया।
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छुआछूत आज भी क्यों कायम है?
भारत के कई ग्रामीण इलाकों में जातिगत मानसिकता आज भी गहराई से समाई हुई है। यह मानसिकता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, जिससे यह एक स्थायी समस्या बन गई है। कई जगहों पर लोगों को अपने संवैधानिक अधिकारों और समानता के बारे में जानकारी नहीं है, जिसके कारण वे भेदभाव को सामान्य मानते हैं। वही एससी/एसटी एक्ट जैसे कानून मौजूद हैं, लेकिन उनका उचित क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। पीड़ितों को न्याय के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ता है। इसके अलवा जो लोग इन भेदभावपूर्ण प्रथाओं का विरोध करते हैं, उन्हें समाज से बहिष्कृत होने का डर रहता है।